ऐसा क्यों होता है ?
हम पांच मित्रों का नित्य का नियम है कि प्रातः ६ बजे कैंट के वाकिंग प्लाज़ा में प्रातः भ्रमण के लिए जाते हैं और लगभग दो किलोमीटर के उपरान्त एक शेल्टर में लगभग आधा घंटा बैठते हैं और वहां पर अन्य मित्र भी होते हैं जो कि नित्य चर्चाओं में भाग लेते हैं.इन्ही मित्रों में एक श्री गुप्ता जी जो कि लगभग ८० वर्ष के हैं वह भी नित्य आते थे .एक दिन जब हम लोग शेल्टर में पहुंचे तो देखा कि गुप्ताजी फूट फूट कर रो रहे हैं ,बहुत देर तक पूछने पर उन्होंने बताया कि उनके कर्नल बेटे जिनके साथ वो रहते हैं उसने उन्हें घर से निकल जाने के लिए कहा है .इस पर मैंने उन्हें ढांडस बंधाते हुए कहा कि आप कहीं नहीं जायेगे ,आप अपना सामान उठाइए और मेरे घर चलिए ,मैं आपकी अपने पिता के समान सेवा करूंगा .मैं लगभग दो घटे में आपके घर पर कार लेकर आऊँगा ,अपना सामान तैयार रखिये .यह सुन कर वो और भी जोर जोर से रोने लगे और कहने लगे कि मेरा सगा बेटा मुझे घर से निकाल रहा है और तुम मेरे बेटे न होते हुए भी अपने घर ले जा रहे हो ? जब उन्हें विश्वास हो गया कि मैं उन्हें झूठी सांत्वना नहीं दे रहा हूँ तो उन्हों कहा कि ठीक है मैं सामान बंधता हूँ , मेरे फ़ोन का इंतज़ार करना .लगभग 12 बजे उनका फ़ोन आया कि सब ठीक हो गया है,आने की जरूरत नहीं है .दुसरे दिन प्रातः हमारी उत्सुकता को भांपते हुए उन्होंने बताया कि मैंने अपने बेटे से कल कह दिया कि मैं अपने दुसरे बेटे (मेरा नाम लेकर )के पास जा रहा हूँ .तभी उसे लगा कि उसकी बहुत बदनामी होगी इस लिए उसने कहा ,चलो ठीक है आप मेरे साथ रह सकते हो ,परन्तु इसकी कीमत देनी पड़ेगी , पूछने पर बताया कि छः लाख रूपये . मैंने छः लाख का चेक काट कर दे दिया तब जाकर उसे तसल्ली हुई . हम सब लोगों को बहुत जोर का झटका लगा कि क्या एक बाप जिसने अपनी जवानी इन बच्चों के लालन पालन करने ,शिक्षित करने में, कितनी इच्छायें मारी होंगी, कितनी तकलीफें झेली होंगी, कितनें सपनें अधूरे रह गए होंगे ? उसे अपने बुढ़ापे में इस प्रकार का पारितोषिक मिलने की कभी आशा भी की होती है ? क्या इसी दिन के लिए इंसान बेटा मांगता है. कुछ दिनों के बाद ,यह पता चला कि उसी बेटे ने उनको इतना परेशान किया कि उन्हें मजबूर हो कर दिल्ली में एक वृद्ध आश्रम में अपने रहने का प्रबंध करवा कर वहां शिफ्ट हो गए .आजकल गुप्ताजी उसी आश्रम में रहते हैं . एक बार दिल्ली जाने पर उनसे मिलने का मौका मिला ,मिलकर खुश भी हुए और फिर रोने लगे और कहने लगे कि मुझे अपने किस कर्म की सजा मिल रही है .पहले मेरी पत्नी मुझे छोड़ कर ऊपर चली गयी और अब बच्चों ने भी मेरा त्याग कर दिया है.उनकी दशा देख कर आँखों में आंसू भर आये और यह कविता याद आ गयी !
पत्थरों के शहर में कच्चे मकान कौन रखता है..
आजकल हवा के लिए रोशनदान कौन रखता है..
अपने घर की कलह से फुरसत मिले..तो सुने..
आजकल पराई दीवार पर कान कौन रखता है..
जहां, जब, जिसका, जी चाहा थूक दिया..
आजकल हाथों में पीकदान कौन रखता है..
खुद ही पंख लगाकर उड़ा देते हैं चिड़ियों को..
आजकल परिंदों मे जान कौन रखता है..
हर चीज मुहैया है मेरे शहर में किश्तों पर..
आजकल हसरतों पर लगाम कौन रखता है..
बहलाकर छोड़ आते है वृद्धाश्रम में मां बाप को..
क्यूँकी आजकल घर में पुराना सामान कौन रखता है..
रवीन्द्र नाथ अरोड़ा